सामाजिक न्याय क्या है-गौरव पाल
“समाज़ हम से है हम समाज से नहीं हैं, इसलिए कोई समाज़ कैसा होगा यह पूर्ण रूप से निर्भर संबंधित समाजिक लोगों के विकल्प पर आधारित होता है”.
व्यक्ति के विकास और एक समाज़ की अवधारणा इस बात पर अत्याधिक निर्भर हो जाती है कि उस समाज में न्याय को लेकर कितनी संवेदना है या चिंतन है अगर हम ऐसे समाज में रहते है जहां शक्ति का केंद्र या तो सीमित लोग हो या फिर व्यक्ति से ज़्यादा रूढ़िवादी परम्पराओं को महत्व दिया जाता है तो फिर वहां समाजिकन्याय अप्रसांगिक हो जाता है इसलिए व्यक्ति से ही सामाजिक न्याय शुरू होता है और व्यक्ति पर ही खत्म होता है।
समाजवाद, पूंजीवाद, मार्क्सवाद, इत्यादि जैसी राजनीतिक व्यवस्था में ‘समाजिक न्याय’ के हमको अलग अलग मायनें समझने को मिल जाएंगे, परंतु आज तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हुई है जहां समाजिक न्याय को चुनौतियां न मिल रही हो, वैश्वीकरण में सबसे सहज व्यवस्था समझी जाने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी सामाजिक न्याय राष्ट्रवाद जैसे कई तमाम मुद्दों में बिखर गया है। मार्क्स ने सामाजिक न्याय का एक बहुत बड़ा आधार दिया था और वह था ‘वर्ग-संघर्ष’, किन्तु अगर वर्ग से ज्यादा व्यक्ति-संघर्ष के सामाजिक न्याय पर अधिक जोर दिया जाता तो शायद हम सामाजिक न्याय को मौलिक रूप में लागू कर पाते, इसका अच्छा उदाहरण हम इस बात से भी समझ सकते हैं कि जो मौलिक अधिकार व्यक्ति को मिले हैं वो व्यक्तिगत आधार के रूप में प्रदान किये गए है ना कि वर्ग के आधार पर।
एक बात समझने की आवश्यकता है कि सामाजिक न्याय की जो आम अवधारणा है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति तक संसाधनों, अधिकारों, न्याय, इत्यादि जैसी मूल सुविधाएं होनी चाहिए, वह गलत नहीं है लेकिन न तो कभी पूर्ण समानता लागू की जा सकती है। इसलिए वर्ग से व्यक्ति तक नहीं बल्कि व्यक्ति से वर्ग तक सामाजिक न्याय को स्थापित करना होगा इसके पश्चात समाज अपने आप ही सामाजिक न्याय का अंग कहलाएगा। इसके लिए व्यक्ति को तैयार करना पड़ेगा , व्यक्ति को अपने अधिकारों अपने न्याय के प्रति चेतनायुक्त होना होगा और यह सब बिना शिक्षा में संभव नहीं है शिक्षा ही है जो यह तय करने में बड़ी भूमिका निभाएगा की हमारा समाज कैसा होगा और इस समाज में सामाजिक न्याय का स्तर कैसा होगा।किन्तु बड़ी समस्या यह भी है कि हमारी शिक्षा का स्तर कैसा है ? अगर शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात भी व्यक्ति अपने मौलिक कर्तव्यों व अधिकारों को समझने में भी असफ़ल है तो सामाजिक अन्याय की शुरुआत तो शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्न लगते के साथ ही शुरू हो गया।
समाजिक न्याय को प्राप्त करने के लिए सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, मानसिक, जैसे स्तरों पर कुठाराघात करने की आवश्यकता है, क्योंकि आसान शब्दों में आपको यदि सामाजिक न्याय को समझना है तो यही जानना पर्याप्त होगा कि ऐसा कोई भी नियम, कृत्य, विश्वास, अवधारणा, या लोग जो व्यक्ति के सैद्धान्तिक विकास को रोके वह सब सामाजिक अन्याय के दायरे में आएगा। क्योंकि सामाजिक न्याय का गहन अर्थ व्यक्ति के चहुमुखी विकास से है।
रूस की क्रांति हो,या फ्रांस की क्रांति, या फिर अमेरिका की क्रांति वैश्विक आधार पर ये वो घटनाएं हैं जिन्होंने नवपरिवर्तन के रास्ते को जगह दी, फिर भी समाजिक न्याय आज भी हमारी तरफ प्रासंगिक बना हुआ है। क्योंकि हम वर्तमान पूर्ति में लगे हुए हैं हमने आधार बनाने की तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं दिया, भारत में समाज सुधारक रहे स्वामी विवेकानंद, राजा राम मोहन राय,ज्योतिबाफुले जैसे सुधारक के बावजूद अगर हम सामाजिक न्याय की मूलभूत चीजों के लिए इंतज़ार में हैं तो फिर सोचना आवश्यक हो जाता है कि हमने आधार बनाने में कहां चूक किया है।
गौरव पाल ने उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राप्त किया है।
